औरत मज़ार जाने की मन्नत मानी हो तो क्या करे

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औरत मज़ार जाने की मन्नत मानी हो तो क्या करे


 सवाल. क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअला में की ज़ैद ने यह मन्नत मानी कि हिंदा से मेरा निकाह हो जाए तो हम दोनों एक साथ पैदल अजमेर जाएंगे हिंदा का शौहर तो चला गया पर हिंदा ना गई तो हिंदा का क्या हुक्म है

 साईल  मोहम्मद रिज़वानुल क़ादरी सेमरबारी (दुदही कुशीनगर उत्तर प्रदेश)


 जवाब  मन्नत के दो तरीक़े राईज हैं एक मन्नते शरई और दूसरा मन्नते उर्फी
(१) मन्नते शरई > यह है कि अल्लाह तआला के लिए कोई चीज़ अपने ज़िम्मा लाज़िम कर लेना, इसकी कुछ शराईत होती हैं, अगर वह पाई जाएं तो मन्नत को पूरा करना वाजिब होता है और पूरा ना करने से आदमी गुनाहगार होता है, इस गुनाह की नहूसत से अगर कोई मुसीबत आ पड़े तो कुछ बईद नहीं
(१) दूसरी मन्नते उर्फी > यह है कि लोग नज़र मानते हैं अगर फलां काम हो जाए तो फलां बुजुर्ग के मज़ार पर चादर चढ़ाएंगे या हाज़िरी देंगे या मुर्गा बकरा वगैरा करेंगे, यह नज़रे उर्फी है इसे पूरा करना वाजिब नहीं बेहतर है
(आम कुतुबे फिक़्ह)

 सूरते मसउला में मन्नत वाजिब नहीं है और ना ही हिंदा का जाना ज़रूरी है बल्कि जाना मना है सरकार आला हज़रत रज़ि अल्लाहू तआला अन्हू तहरीर फरमाते हैं कि  गुनिया में है यह ना पूछ कि औरतों का मज़ार पर जाना जायज़ है या नहीं ? बल्कि यह पूछो कि उस पर किस क़द्र लानत होती है अल्लाह तआला की तरफ से और किस क़द्र साहिबे क़ब्र की जानिब से जिस वक़्त वह घर से इरादा करती है लानत शुरू हो जाती है और जब तक वापस आती है मलाईका लानत करते रहते हैं सिवा ए रोज़ा ए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के किसी मज़ार पर जाने की इजाज़त नहीं वहां की हाज़री अलबत्ता सुन्नते जलीला अज़ीमा क़रीब बवाजिबात है और क़ुरआन करीम ने उसे मगफिरत का ज़रिया बनाया (अलमलफूज़ सफा २४०/रज़वी किताब घर दिल्ली)

 फतावा रज़विया शरीफ में है कि  रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं

 عن اﷲ زوارت القبور

 क़ब्रों की ज़ियारत को जाने वाली औरतों पर अल्लाह की लानत है (मुसनद अहमद बिन हंबल हदीस ए हस्सान बिन साबित दारुल फिक्र बैरुवत / ३ / ४४२)

 और फरमाते हैं सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम

 کنت نھیتکم عن زیارۃ القبور الافزوروھا

 मैंने क़ब्रों की ज़ियारत से मना किया था सुन लो अब उनकी ज़ियारत करो (सुनन इब्ने माजा अबवाबुल जनाएज़ एच  एम सईद कंपनी कराची)

 उलमा को एख्तिलाफ हुआ कि आया इस इजाज़त बादे इलाही में औरात भी दाखिल हुई या नहीं, असह यह है की दाखिल हैं कमा फिल बहरुर्राईक़ मगर जवान औरतों को ममनूअ है जैसे मसाजिद से और अगर तजदीदे हुज़्न मक़सूद हो तो मुतलक़न हराम

 अक़ूलू (सरकारे आला हज़रत रज़ि अल्लाहू तआला अन्हू फरमाते हैं मैं कहता हूं) क़ुबूरे अक़रबा पर खुसूसन बहाले क़ुर्बे अहद मिम्मात तजदीदे हुज़्न लाज़िमे निसा है और मज़ाराते औलिया पर हाज़री में अहदिश्शनाअतैन का अंदेशा या तर्के अदब या अदब में अफरात नाजायज़ तो सबील इतलाक़ मना है व लिहाज़ा गुनिया में कराहत पर जज़म फरमाया अलबत्ता हाज़री व खाक बोसी आस्ताने अर्शे निशाने सरकारे आज़म सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आज़मुल मंदुबात बल्कि क़रीब वाजिबात है, इससे ना रोकेंगे और तअदीले अदब सिखाएंगे (फतावा रज़विया जिल्द ९ सफा ५३८/दावते इस्लामी)

 एक दूसरी जगह फरमाते हैं : अब ज़्यारते क़ुबूर औरतों को मकरुह ही नहीं बल्कि हराम है, यह ना फरमाया कि वैसी को हराम है ऐसी को हलाल है, वैसी को तो पहले भी हराम था, इस ज़माना की किया तखसीस, मज़ीद मालूमात के लिए

 (جمل النور فی نھی النساء عن زیارۃ القبور)

का मुतालआ करें जो (फतावा रज़विया/दावते इस्लामी/जिल्द ९ सफा ५४२)से शुरू है

 मज़कूरा बाला इबारतों से वाज़ेह हो गया कि मानी गई मन्नत शरई नहीं बल्कि उर्फी है यानी वाजिब नहीं है,और औरत के हक़ में  उर्फी भी नही कि औरतों को मज़ाराते औलिया पर जाना सख्त मना है जाएंगी तो लानत की मुस्तहिक़ होंगी  लिहाज़ा हिंदा अजमेर ना जाए बल्कि अपने घर रह कर नियाज़  गरीब नवाज़ के नाम दिला दे और हो सके तो कुछ सदक़ात व खैरात कर दे

والله تعالی اعلم بالصواب

नोट  इस तरह की मन्नत ना माने कि बाद में पूरा करना दुशवार हो मान लीजिए अगर मन्नते शरई होती तो किस क़द्र परेशानी थी इसलिए मन्नत मानने से पहले सोच समझ लिया करें, और बेहतर मन्नत नमाज़े नफ्ल पढ़ना, रोज़ा रखना, गरीबों को खाना खिलाना, सदक़ात व खैरात करना है लिहाज़ा यही सब माना करें


अज़ कलम 

फकीर ताज मोहम्मद क़ादरी वाहिदी 

हिन्दी ट्रानलेट 

मौलाना रिजवानुल क़ादरी अशरफी  सेमरबारी 




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