एक वक़्त में दो जमाअत करना कैसा है ?

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 एक वक़्त में दो जमाअत करना कैसा है ?


सवाल : क्या फरमाते हैं उलमा ए किराम इस मसअला में की एक बस्ती में कुछ आपसी एख्तिलाफ की वजह से एक ही मस्जिद में एक ही वक़्त में दो इमाम एक नीचे और दूसरे ने ऊपर छत पर नमाज़ पढ़ाई तो नमाज़ का क्या हुक्म है ? याद रहे दोनों इमाम मेहराब के अंदर ही इमामत कर रहे हैं और दोनों के लिए एक ही अज़ान हुई तो ऐसा करना कहां तक दुरुस्त है ? नमाज़ में क्या कराहत आएगी और इमाम साहब पर इंदश्शरअ क्या हुक्म लगेगा ? मअ हवाला बित्तफसील जवाब इनायत फरमा कर इंदल्लाह माजूर हों ?

साईल : मोहम्मद अयूब रज़ा कोल कतवी

जवाब : अगर किसी मस्जिद में इमाम मोअय्यन है और वह सुन्नते तरीक़ा पर नमाज़ पढ़ता है जिसकी नमाज़ में अज़ रुए शरअ कोई कराहत नहीं और ना वह ऐसा है कि जिस की इमामत से नमाज़ में फसाद लाज़ीम आता हो तो उसकी जमाअत ऊला होगी और उसके पीछे नमाज़ पढ़ना बेहतर होगा,

अब अगर उसी मस्जिद में एक ही वक़्त में एक फर्ज़ की नमाज़ बगैर किसी उज़्र शरई के दुसरी जमाअत क़ाएम की गई तो यह नाजायज़ व ममनूअ है

चूंकी इसमें तफरीक़ लाज़ीम आती है जो फेल मज़मूम है बल्कि ऐसी सूरत एख्तियार करनी चाहिए की हालते मजबूरी में भी तफरीक़े जमाअत ना हो सके जैसा की जंग के मौक़ा पर तफरीक़ जमाअत से बचने के लिए ऐसी सूरत एख्तियार की गई की जमाअत एक ही हो हालांकि वह वक़्त इन्तिहाई मुश्किल व परेशानी का होता है जब ऐसे वक़्त तफरीक़े जमाअत से इजतिनाब किया गया तो फिर बिला वजह शरई तफरीक़े जमाअत क्यों कर जायज़ होगी इसी वजह से की तफरीक़े जमाअत ना हो, जमाअते ऊला अफज़ल है,

हिदाया में है

ومن صلی رکعتہ من الظھر ثم اقیمت یصلی اخری صیانۃ للمؤدی عن البطلان ثم یدخل مع القوم احراز الفضیلۃالجماعۃ وان لم یقید الاولی بالسجدۃ یقطع ویشرع مع الامام وھوالصحیح

और जिस ने ज़ोहर की एक रकात पढ़ ली फिर ज़ोहर के लिए अक़ामत शुरू हो गई तो नमाज़ी अदा की हुई नमाज़ को बतलान से बचाने के लिए दूसरी रकात भी पढ़ ले फिर जमाअत की फज़ीलत को पाने के लिए जमाअत में शरीक हो जाए और अगर नमाज़ पहली रकात को सजदा से ना मिलाया हो तो उसे तोड़ कर इमाम के साथ नमाज़ शुरु कर दे यही सही है,(हिदाया जिल्द १ किताबुस्सलात सफा १५१)

जब फज़ीलते जमाअत को पाने के लिए नमाज़ तोड़ने का हुक्म दिया गया है तो फिर दूसरी जमाअत बिला उज़्र शरई महज़ बुग्ज़ व इनाद पर क्यों कर जायज़ हो सकती है,(फतावा मुहद्दीसे आज़म राजस्थान, किताबुस्सलात सफा २३१)

यानी आपसी एख्तिलाफ की वजह से बगैर उज़्र शरई के एक ही मस्जिद में एक ही अज़ान से दो इमाम का एक वक़्त में एक ऊपर एक नीचे जमाअत करना जायज़ नहीं है लेकिन पढ़ी हुई नमाज़ होगई.

          والله تعالی اعلم بالصواب

अज़ क़लम 

 फक़ीर ताज मोहम्मद हन्फी क़ादरी वाहिदी अतरौलवी

हिंदी ट्रांसलेट

मोहम्मद रिज़वानुल क़ादरी सेमरबारी (दुदही कुशीनगर उत्तर प्रदेश)


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